इच्छाओं को रोकना ही तप है: आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज
Restraining Desires is Penance
Restraining Desires is Penance: चंडीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर में पर्यूषण महापर्व पर आचार्य श्री सुबलसागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में बड़ी ही भव्यता के साथ चल रहे हैं हे धर्मात्माओं । क्रोध, मान,माया, लोभ इन कषाय रूपी भावों को जीतकर ही सत्य को हम प्राप्त कर सकते हैं और सत्य को जीवन में लाने के लिए ही उत्तम संयम धर्म को अंगीकार कर अब हमें उत्तम तप को धारण किये बिना हमारी आत्मा में लगी कालिमा नष्ट नही हो सकती है। खदान से निकाले सोने के लिए एक बार नहीं कई बार तपाना पड़ता है उसे आग में, तब कहीं वह शुद्ध धातु रूपी स्वर्ण पन्ने को प्राप्त होता, इसी प्रकार कालिमा लगी हुई हमारी आत्मा को हमें तप रूपी भट्टी में डालने पर ही बह कर्मों को नष्ट कर शुद्ध परमात्मा अवस्था को प्राप्त हो जाता है यह क्रम भी धीरे-धीरे ही चलता है।
उत्तम तप का अर्थ है इच्छा निरोधा तपः । अपनी इच्छाओं को वश में करना। आज हमारे दुःख का मूल कारण इच्छाओं का असीमित होना है। जो तपता नहीं, वो पकता नहीं। तप पकने की प्रयोगशाला है। तपस्या की आग से गुजर कर ही परमात्मा बनती है। हम अपनी औकात से ज्यादा सपने देखते हैं, इसलिए दुखी परेशान रहते हैं । जितनी आय हो उतने ही सपने देखो। आज का आदमी बच्चों को कम पाल रहा है,इच्छाओं औरचिन्ताओं को ज्यादा पाल रहा है। जो तप इच्छाओं से रहित होकर किया जाता है, वही तप परम पद को दिलाता है। तपस्या का प्रारंभ कठिन है परन्तु अन्त बहुत मधुर है। तप से सभी सिद्धियाँ अपने आप प्राप्त हो जाती है। यह जानकारी श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।
बर्तन गरम हुए बिना दूध गरम नहीं हो सकता है, उसी प्रकार बत्स तप सहायक है अन्तरंग 'तपों की वृद्धि में। तप करने से मन की विकारी प्रवृत्ति का भी क्षय होता है। मन शुद्धि विश्व की सबसे बड़ी शुद्धि है। व्यक्ति के जीवन में एक छोटा सा संयम रूपी तप, उसे भविष्य का भगावान बना देती है। इस संसार में व्यक्तियों की इच्छाओं का अंत नहीं है। एक इच्छा की पूर्ति होती है लेकिन उसके पीछे बहुत सारी इच्छाएँ लाइन लगाकर खड़ी हुई है। व्यक्ति का तो नाश हो सकता है लेकिन इच्छाओं का नहीं, इसलिए इन इच्छाओं को रोकना का एक ही उपाय है इन इच्छाओं को दवा देना इनकी पूर्ति नहीं करना तभी वह रुक सकती हैं अग्नि में कितना ही ईधन डालो वह सब नाश को प्राप्त होता है इसलिए ईधन डालना बंद कर दो वह अग्नि अपने आप शांत हो जाएगी। जिस प्रकार तिल में तैल है, दूध में घी है, पाषण में सोना है उसी प्रकार हमारी आत्मा में भी परमात्मा बनने की शक्ति है आवश्यकता है उसे तपाने की। तपे बिना घी, सोना प्राप्त नही हो सकता है इसलिए शरीर शक्ति के अनुसार तप को अंगीकार करो। अन्यथा दुख उठाना पड़ेगा भव -भव में । यह जानकारी बाल ब्र. गुंजा दीदी ने दी।
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